“गीता प्रवचन” ग्रन्थ से –
प्रवचन-४१
(२५-११-७९)
‘भगवान् की विशेष विभूतियाँ’
बड़भागिन गीतानुयायी मण्डली !
जाप करते समय मन को बार-बार यही समझाना चाहिये – ‘हे मन ! कहाँ भागता है? जरा ध्यान से देख –
(१) सब कुछ तो उस एक भगवान् से ही निकला है अथवा जितनी यह अनेकता है एकमात्र भगवान् जी से ही प्रकट हुई है ।
(२) जिन प्राणी-पदार्थ का तू चिन्तन कर रहा है – ये सब भगवान् जी का ही उत्पादन हैं ।
दृष्टान्त देते हुए उन्होंने इस तथ्य को सुस्पष्ट किया कि जैसे दही, मक्खन, घी, पनीर, खोया, बर्फी इत्यादि सब दूध का ही उत्पादन हैं, इसी प्रकार जितने भी चराचर प्राणी-पदार्थ दिखाई देते हैं सब भगवान् का ही उत्पादन हैं । जिसने दूध पी लिया उसने मानो बर्फी, पनीर, खोया, दही इत्यादि सब कुछ खा लिया । इसी प्रकार भगवान् के नाम-जाप में ही सब आ जाते हैं । ऐ मूर्ख मन ! इन का चिन्तन कर के क्यों अपने को अनेकता में उलझा रहा है?
अजी दूर क्यों जाते हो ! अपने घर में ही ले लीजिये ! जैसे परिवार पिता के खयाल का विकसित रूप है । पिता जी में ही संकल्प उठा और शादी कर के पत्नी लाये और उन्हीं का खयाल ही विकास करके बच्चों के रूप में प्रकट हुआ । इसी प्रकार समस्त जड़-चेतन सृष्टि भगवान् जी के खयाल का ही विकसित रूप है । भगवान् जी में ही सर्वप्रथम यह संकल्प उठा था –
‘एको अहं बहु स्यां ।’
अर्थात्-
मैं एक हूँ अनेक हो जाना चाहता हूँ ।
बस इतना कहते ही उनमें से तीन गुण (सत्, रज, तम) और पाँच तत्त्व (आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी) निर्गत हो गये और इन्हीं आठों के समुदाय से नाना प्रकार के प्राणी-पदार्थ बनते चले गये ।
फलत: –
ओ भोले मनुवा ! ज़रा विचार तो कर कि जो चीज बनी है वह सच्चाई है या जिससे बनी है वह सच्चाई है?
याद रख कि जो वस्तु बनती है वह देर चाहे सवेर मिट भी अवश्य जाती है । श्रीगीता-भगवती का यह सिद्धान्त कदापि काटा नहीं जा सकता, भले ही सूर्य पूर्व की अपेक्षा पश्चिम से निकलना प्रारम्भ क्यों न कर दे ! सिद्धान्त यह है –
‘जातस्य हि ध्रुव: मृत्यु ।’
– (श्रीमद्भगवद्गीता-२/२७)
अर्थात्-
जो पैदा हो मौत उस को आये जरूर ।
‘Born Must Die.’
सृष्टि भगवान् जी से बनी है । श्रीगीता जी में भगवान् जी ने स्थान-स्थान पर इस भाव को स्पष्ट कर दिया हैं । यथा –
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्व प्रवर्तते ।
– (श्रीमद्भगवद्गीता-१०/८)
अर्थ – मैं सब का उत्पत्ति स्थान हूँ, मुझ से (यह) सब प्रवृत होता है ।