“गीता प्रवचन” ग्रन्थ से –
प्रवचन-४१
(२५-११-७९)
‘भगवान् की विशेष विभूतियाँ’
बड़भागिन गीतानुयायी मण्डली !
(३) जिस से यह समस्त जगत् अस्तित्व में आया है, जिस के सहारे टिका हुआ है, ऐ बुद्धिमान् ! सुन रख कि उसी में ही यह सब चराचर सृष्टि विलीन हो जायेगी । सिद्धान्त अटल है – जो वस्तु जहाँ से बनी है देर चाहे सवेर उसी में ही विलीन हो जाती है । यह सृष्टि भगवान् जी के पाँच तत्त्वों से बनी है अत: धीरे-धीरे कर के वापस उन्हीं तत्त्वो में समाती चली जा रही है । अभी तो हम परचून रूप में देख रहे हैं कि किसी की यहाँ मृत्यु हो गई तो किसी की वहाँ, अमुक स्थान पर दुर्घटना हो जाने से कुछेक व्यक्तियों का देहावसान हो गया इत्यादि-इत्यादि । परन्तु एक समय ऐसा आता है जबकि सारी सृष्टि थोक के भाव से ही भगवान् जी की सत्ता में विलीन हो जाती है । इसी भाव को सातवें अध्याय में भगवान् जी ने स्पष्ट किया हैं कि मुझ से ही सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है और समय पाकर मेरे में ही विलीन हो जाते हैं –
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ।
– (श्रीमद्भगवद्गीता-७/६)
अर्थात्-
सो मुझ से है आगाज़-ए आलम तमाम,
मेरी जात में सब का हो एख्तताम ।
उपरोक्त साधनों को लेकर मन को बार-बार यह समझाने पर कि ऐ मन ! जिस सृष्टि पर तू लट्टू हुआ-हुआ है, जिस के चिन्तन में तू लगा रहता है, जिस को सत्य, नित्य एवं सुखदायी मान कर तू इस के प्राणी-पदार्थों की इच्छाएँ करता रहता है – यह सृष्टि तो भगवान् से बनी है, भगवान् के सहारे खड़ी है और अन्तत: भगवान् में ही विलीन हो जायेगी । यथा –
- बुलबुले, भँवर, तरंग, लहरें इत्यादि पानी से बने हैं, पानी पर ही खड़े हैं और फूट कर पानी में ही मिल जायेंगे तो सच्चाई पानी है, न कि बुलबुले इत्यादि ।
- मिट्टी के बर्तन मिट्टी से बने हैं बन कर भी मिट्टी हैं और टूट कर पुन: मिट्टी ही रह जायेगी ।
- सोने के नाना प्रकार के आभूषणों में सोना ही सच्चाई है, आभूषण नहीं क्योंकि आभूषण तो टूट कर फिर सोने में ही मिल जायेंगे ।
- नाना प्रकार के डिजाइनों में दिखाई देने वाले सूत के वस्त्र सूत का उत्पादन हैं अत: सूत ही सत्य है वस्त्र नहीं ।
ठीक इसी प्रकार-
समस्त सृष्टि में भगवान् ही भगवान् सत्य हैं सृष्टि नहीं । भगवान् इस सृष्टि के all in all हैं अर्थात् सब में सब कुछ हैं । इसीलिए तो उन्होंने श्रीगीता जी में डंके की चोट से साहसपूर्ण घोषणा कर रखी है कि मुझ से अधिक परे दूसरा कुछ नहीं है । आगे दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया कि धागे में मणियों की लड़ी के समान यह सब नाम-रूप उन्हीं में पिरोये हुए हैं –
मत्त: परतरम् न अन्यत् किञ्चित् अस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वम् इदम् प्रोतम् सूत्रे मणिगणा: इव ।।
– (श्रीमद्भगवद्गीता-७/७)
अर्थात्-
सुन अर्जुन नहीं कुछ भी मेरे सिवा,
न है मुझ से बढ़ कर कोई दूसरा ।
पिरोया है सब कुछ मेरे तार में,
कि हीरे हों जैसे किसी हार में ।।
– इससे मन की प्रवृत्ति स्वयमेव ही भगवान् जी की ओर हो जायेगी और मन जाप में रस लेता हुआ पूर्ण एकाग्रता प्राप्त कर लेगा । इसी एकाग्रता के माध्यम से ध्यानावस्था में स्थित होकर मन भगवान् जी के देव-दुर्लभ दिव्य दर्शनों को करने में सफलता प्राप्त कर लेता है । इसी अवस्था में भगवान् जी की इस दिव्य शक्ति की महत्ता का पता चलता है –
‘यज्ञानाम् जपयज्ञ: अस्मि ।’